धनक -THE RAIN BOW

जीवन अनेक रंगों में रंगा मिलता है ;जीवन रंगो में रंगे धनक को सुधि पाठकों के लिए समर्पित करता हूँ ; धन्यवाद DHANAK.THERAINBOW KITAB PAANAY KE LIYE SAMPRK KREIN 9814087063 EMAIL I.D. IS DHANAKTHERAINBOW @GMAIL.COM

30 August, 2009

मेरे दिलबर को मेरा


चाँद तन्हा सा प्यासा औ आवारा क्यों हैं ?
हाल उस का भी मुझ सा ही खुदारा क्यों है .
था हमें नाज़ बहुत आपकी दानाई पर ,
तेरी नादानी से ये हाल हमारा क्यों है .
खत नहीं फोन नहीं कोई भी नाता भी नहीं ,
मेरे दिलबर को मेरा दर्द गवारा क्यों है .
मैं ने माना की जुर्म होता है सच का कहना ;
है जुर्म ये तो जुर्म इतना ये प्यारा क्यों है
दीप जल जायेगा जलता ही चला जायेगा ;
तेरा दीवाना फटेहाल बेचारा क्यों है?

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23 August, 2009

ये भी मैं हूँ वो भी मैं ही ..






ये भी मैं हूँ वो भी मैं ही ..

एक बूँद गिरी पर गिरे कभी जो मैं ही हूँ .
एक बूँद धरा पर गिरी कभी जो मैं ही हूँ .
एक बूँद अरिहंता बन गिरी समर-आँगन में ,
एक बूँद किसी घर गिरी नवोढा नयनन से ,
एक बूँद कही पर चली श्यामल गगनन से '
एक बूँद कहीं पर मिली सागर प्रियतम से ,
वो बूँद बनी हलाहल जानो मैं ही हूँ ,
वो बूँद बनी जो सागर जानो मैं ही हूँ,
वो बूँद बनी पावन तन जानो मैं ही था ,
वो बूँद बनी प्यासा मन जानो मै ही हूँ .
हर बूँद बूँद में व्यापक व्याप्त मैं ही हूँ
हर बूँद का मालिक पालक बालक मैं ही हूँ .
मैं सागर बादल कमल दामिनी गंगाजल ;
मैं पर्वत गहन गम्भीर हूँ जैसे विंध्यांचल .
बिरहन के मन की पीर से भीगा हूँ आंचल ,
मैं कुल ब्रह्मांड की बेटियों का धर्मी बाबुल .
मैं आदि अनादि मैं मध्य हूँ मैं ही हूँ अनंत ;
मै ग्रीष्म शिशिर हेमंत हूँ मै ही हूँ वसंत .
मैं बीज हूँ जड़ भी मैं ही फल फूल भी मैं .
मैं वो हूँ वो मैं ही हूँ जल कूल भी मैं .
मैं ही हूँ वर्ग पहेली ,वर्ग भी शब्द भी मैं .
मैं ही हूँ रस राग रंग का अर्थ भी मैं .
मैं जान अजान का भेद हूँ मैं ही हूँ ज्ञाता .
कुछ समझना बाकी न है , समझ भी न आता .
वो मायापति अकाल दयाल विशाल भी मैं .
वो घुटनों चलता मूढ़ मती जो बाल भी मैं

deepzirvi@yahoo.co.in

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20 August, 2009

गज़ल


ज़माना याद रखे जो ,कभी ऐसा करो यारो .
अँधेरे को न तुम कोसो, अंधेरों से लड़ो यारो .
 
निशाने पे नज़र जिसकी ,जो धुन का हो बड़ा पक्का ;
'बटोही श्रमित हो न बात जाये जो ' बनो यारो .
 
जगत में भूख है ,तंगी - जहालत है जहां देखो ;
करो सर जोड़-कर चारा चलो झाडू बनो यारो .
 
रखे जो आग सीने में, जो मुख पे राग रखता हो ;
अगर कुछ  भी नही तो राग दीपक तुम बनो यारो .
 
 
नदी भी धार बहती है,लहू भी धार बहती है ,
जो धारा प्रेम की लाये वो भागीरथ बनो यारो .
 
धर्म के वास्ते जीना ही जीना ,जान लो सारे;
अगर लड़ना ही लाज़िम हो, नफस से तुम लडो यारो .
दीप जिर्वी   
 
 

 

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deepzirvi9815524600
http://deepkavyanjli.blogspot.com

फिर वतन से ...


[१ ]
फिर वतन से ...
फिर वतन से आई महकी-महकी हवा ..
 
मन-चमन में छाई महकी-महकी हवा ..
 
इस हवा में है बहनों का निश्छल मोह
 
इस हवा में है घुली माँ की आशीष
 
इस हवा में है बापू की पगडी की चीख .
 
इस हवे में मेरी  भाभियों के मजाक ;
 
राह  तकते हुए सिधूरी सूरज की टीस;
 
इस हवा में है भाई -बांधव की चाह .
 
फिर वतन से आई महकी-महकी हवा ..
 
मन-चमन में छाई महकी-महकी हवा ..
 
दीप जीर्वी

 

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deepzirvi9815524600
http://deepkavyanjli.blogspot.com

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19 August, 2009

हमे अजमाने की कोशिश न कर


हमे  अजमाने की कोशिश न कर
जरा दूर जाने की कोशिश  न कर 
अगर साथ चलने गवारा न हो .
(तो) बहाने बनाने की कोशिश न कर.
मेरा दामन तुम्हारे लिए ही बना ,
ये कह कर लुभाने की कोशिश न कर .
सिर्फ तेरे आंसू ही मांगे हैं ,अब,
देख ले भाग जाने की कोशिश न कर .
तेरा इतिहास का पोथा थोथा छोडो ,
'आज ' से भाग पाने की कोशिश न कर .
कल अँधेरे में थे; दीप अब है जला .
दीप से मुंह फिराने की कोशिश न कर 
दीप जीर्वी

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deepzirvi9815524600
http://deepkavyanjli.blogspot.com

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18 August, 2009

ये भी मैं हूँ वो भी मैं ही ..


ये भी मैं हूँ वो भी मैं ही ..
एक बूँद गिरी पर गिरे कभी जो मैं ही हूँ .
एक बूँद धरा पर गिरी कभी जो मैं ही हूँ .
एक बूँद अरिहंता बन गिरी समर-आँगन   में ,
एक बूँद किसी घर गिरी नवोढा नयनन से ,
एक बूँद कही पर चली श्यामल गगनन से '
एक बूँद कहीं पर मिली सागर प्रियतम से ,
वो बूँद बनी हलाहल जानो मैं ही हूँ ,
वो बूँद बनी जो सागर  जानो मैं ही हूँ,
वो बूँद बनी पावन  तन जानो मैं ही था ,
वो बूँद बनी प्यासा मन जानो मै ही हूँ .
हर बूँद बूँद में व्यापक व्याप्त मैं ही हूँ 
हर बूँद का मालिक पालक बालक मैं ही हूँ .
मैं सागर बादल कमल दामिनी गंगाजल ;
मैं पर्वत गहन गम्भीर हूँ जैसे विंध्यांचल  .
बिरहन के मन की पीर से भीगा हूँ आंचल ,
मैं कुल ब्रह्मांड की बेटियों का धर्मी बाबुल .
मैं आदि अनादि मैं मध्य हूँ मैं ही हूँ अनंत ;
मै ग्रीष्म शिशिर हेमंत हूँ मै ही हूँ वसंत .
मैं बीज हूँ जड़ भी मैं ही फल फूल भी मैं .
मैं वो हूँ वो मैं ही हूँ जल कूल भी मैं .
मैं ही हूँ वर्ग पहेली ,वर्ग भी शब्द भी मैं .
मैं ही हूँ रस राग रंग का अर्थ भी मैं .
मैं जान अजान का भेद हूँ मैं ही हूँ ज्ञाता .
कुछ समझना बाकी न है , समझ भी न आता .
वो मायापति अकाल दयाल विशाल भी मैं .
वो घुटनों चलता मूढ़ मती जो बाल भी मैं

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14 August, 2009

sare jahaa se achha

 
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12 August, 2009

हमे फिर यादआया वो जमाना


हमे फिर याद आया वो जमाना
हमे फिर याद आया वो जमाना ,किसी के दिल में था अपना ठिकाना .
हुस्न की देवी थी या वो परी थी ,  उस से शरमाया करती चांदनी थी .
उसे अपने से  लगते थे सितारे ,सभी  गुलशन के गुल जिसको थे प्यारे.
सभी उसकी गली के थे दीवाने ,उसीकी और सब के थे निशाने.
जवानी की अजब थी ताजगी वो , हुस्न में थी अजब सी सादगी वो .
कभी मिश्री से बोलों का सुनाना,कभी खुद रूठना खुद मान जाना.
कभी हाथों में ले के हाथ मेरा , दुआ  करना न छूटे साथ मेरा .
कभी बच्चों सी जिद कर रूठ जाना ,कभी पुचकारना उसको मनाना .
कभी, बस जागना,उसको जगाना , लगाकर टकटकी बस देखे जाना. 
वो उस की झील से भी गहरी आँखें , अत्र में डूबी वो मदहोश साँसें .
परी सूरत को पाना चाहता था , उसे घर अपने लाना चाहता था .
मगर ये ख्वाब शीशे से भी नाज़ुक, समय का जब पडा इन पर था चाबुक .
बिखरकर दिल में धसते जा रहे हैं ,जख्म नासूर बनते जा रहे हैं .
उन्हें आवाज़ देना काम मेरा,  सुनey या न सुनey पैगाम  मेरा. 
जला कर दीप उम्मीदों के मैंने ,रखा सम्भाल यादों का खजाना. 
 
आपकी राय का मुन्तजिर दीप जीर्वी   
 

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02 August, 2009

सूरजों की बस्ती थी ,जुगनुओं का डेरा है


सूरजों की बस्ती थी ,जुगनुओं का डेरा है ,
कल जहा उजाला था अब वहां अँधेरा है.
राह में कहाँ बहके ,भटके थे कहाँ से हम ,
किस तरफ हैं जाते हम , किस तरफ बसेरा है.
आदमी न रहते हों बसते हों जहां पर बुत ,
वो किसी का हो तो हो, वो नगर न मेरा है.
रहबरों के कहने पर रहजनों ने लूटा है ,
रौशनी-मीनारों पे ही बसा अँधेरा है .
मछलियों की सेवा को जाल तक बिछाया है ,
आजकल समन्दर में गर्दिशों का डेरा है.
दीप को तो जलना है,दीप तो जलेगा ही ,
रौशनी-अँधेरे का तो रहा बखेडा है

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