सूरजों की बस्ती थी ,जुगनुओं का डेरा है

सूरजों की बस्ती थी ,जुगनुओं का डेरा है ,
कल जहा उजाला था अब वहां अँधेरा है.
राह में कहाँ बहके ,भटके थे कहाँ से हम ,
किस तरफ हैं जाते हम , किस तरफ बसेरा है.
आदमी न रहते हों बसते हों जहां पर बुत ,
वो किसी का हो तो हो, वो नगर न मेरा है.
रहबरों के कहने पर रहजनों ने लूटा है ,
रौशनी-मीनारों पे ही बसा अँधेरा है .
मछलियों की सेवा को जाल तक बिछाया है ,
आजकल समन्दर में गर्दिशों का डेरा है.
दीप को तो जलना है,दीप तो जलेगा ही ,
रौशनी-अँधेरे का तो रहा बखेडा है
Labels: नज्म
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