कंठ रूंधे ,साज़ चोटिल ,राग है ना गान है .
इसके काँधे उस का सर है ,देह है निष्प्राण है
कंठ रूंधे ,साज़ चोटिल ,राग है ना गान है .
देश मेरा किस दशा में आ पड़ा है देखिये ;
लोकतंत्र दीखता है ,राजशाही आन है .
ले चले अपने ही कंधे सर को अपने क्यूँ भला?
जब कि अपने सर में कोई सोच है ना जान है.
बाप दादा ने बनाई औ' सजाई जो डगर
खून अबका सोचता है वो डगर बेजान है
होंठ सब सिल के हैं बैठे भीत के पर कान है
यह हमारे वक्त की सब से सही पहचान है .
दीप जीरवी
९८१५५२४६००
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